यादों के झरोखे भाग २४
डायरी दिनांक ०७/१२/२०२२
शाम के छह बजकर बीस मिनट हो रहे हैं ।
पिछले कुछ दिनों से महादेवी वर्मा जी की पुस्तकें पढ रहा हूँ। अतीत के चलचित्र, पथ के साथी और उसके बाद मेरा परिवार पढी है। अतीत के चलचित्र में बड़े मार्मिक संस्मरणों का चित्रण है। पथ के साथी में साथी साहित्यकारों के विषय में लिखा है। जबकि मेरा परिवार में पालतू पशु पक्षियों की यादों को संजोया है। इन संस्मरणों में से कुछ संस्मरण पहले भी पढे थे। जैसे रामा, गिल्लू, गौरा। पथ के साथी पहली बार पढी। जिसमें रवींद्र नाथ टैगोर, मैथिली शरण गुप्त जी, सूर्य कांत त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद जी, सुमित्रा नंदन पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान, सिया राम शरण जी गुप्त के विषय में बताया गया है।
सुभद्रा कुमारी जी महादेवी जी से दो वर्ष सीनियर छात्रा थीं। विद्यालय जीवन से आरंभ हुआ उनका साथ जीवन भर रहा। सुभद्रा कुमारी जी के कवित्व के विषय में किसी को क्या बताना। पर इस पुस्तक में उनके संस्मरण सुभद्रा जी के स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग के अधिक हैं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने अपने पति लक्ष्मण जी के साथ बढ चढकर भाग लिया। उन्हें कितनी ही बार जेल में रहना पड़ा था। ऐसे उल्लेख किसी के मन को भी जगा देने में सक्षम हैं।
जयशंकर प्रसाद जी को उनके इस नाम से वाराणसी में बहुत कम लोग जानते थे। पर कवि बताते ही रिक्शा बाले ने ताव देकर कहा कि हमारे शुंघनी साहू जी से बड़ा कवि कहीं नहीं मिलेगा। अच्छी बात थी कि शुंघनी साहू जी ही कवि जयशंकर प्रसाद जी निकले।
सिया राम शरण गुप्त जी की मैंने कोई रचना नहीं पढी है ।वह मैथिली शरण गुप्त जी के छोटे भाई थे। युवावस्था में ही विधुर हो गये थे। तथा फिर उन्होंने अपना पूरा जीवन अपनी पत्नी की याद में काट दिया।
खरगोश का वर्णन करते समय महादेवी जी भगवान श्री राम के उस गुप्तचर की भूमिका की समीक्षा करती हैं जो कि धोनी का समाचार लेकर प्रभु श्री राम के पास लाया था। क्या हो सकता था, इस विषय पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं देना चाहता। पर अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि समाज के मध्य तक बात जाने से पूर्व बड़ी बड़ी बातों का समाधान हो सकता है। जबकि यदि किसी भी बात से सामाजिक मान सम्मान एक बार प्रभावित हो जाये तो फिर उस बात का कभी समाधान नहीं हो सकता है। मनुष्य का मन कभी भी सामाजिक अपमान को नहीं भुला पाता। फिर वह चाहे कितनी भी परेशानियों को सहन कर ले, कितना भी धन बर्बाद कर ले, पर किसी भी हाल में पीछे नहीं हट पाता है। एक सीमा के बाद गलत और सही का कोई भेद नहीं रहता तथा केवल सामाजिक सम्मान ही अभीष्ट रहता है। झुकना असंभव हो जाता है।
दूसरों की आलोचना करना बहुत आसान काम है। जबकि उन परिस्थितियों में खुद कुछ भी कर पाना अक्सर बहुत कठिन होता है। जब मनुष्य किसी अन्य की आलोचना करता है, उस समय वह समझ ही नहीं पाता कि कभी उसके साथ भी वही परिस्थिति आ सकती है।
सम्मान और अपमान दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। जब किसी का एक सीमा से अधिक सम्मान होता है, उसी समय किसी न किसी के अपमान की भूमिका भी अनायास ही बनने लगती है। और कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि किसी को अति सम्मान देने का कारण भी किसी को अपमानित करना ही होता है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम ।
पृथ्वी सिंह बेनीवाल
08-Dec-2022 11:09 PM
बहुत खूब
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Varsha_Upadhyay
08-Dec-2022 08:36 PM
शानदार
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Parangat Mourya
08-Dec-2022 05:58 PM
Behtreen 🙏👌
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